नगालैंड, मिज़ोरम, असम के साथ-साथ पड़ोसी मुल्क म्यांमार से घिरी इन पहाड़ियों पर राज्य की 40 फ़ीसदी आबादी बसी है, जो यहाँ की मान्यता प्राप्त जनजातियाँ है.
बीते दिनों यहाँ की पहाड़ियों पर बसी कुकी जनजाति और मैतेई समुदाय के बीच भड़की हिंसा, आगजनी और एक-दूसरे पर किए गए हमलों ने समूचे प्रदेश को एक हिंसाग्रस्त क्षेत्र में तब्दील कर दिया था.
राज्य के विभिन्न ज़िलों में बीते 3 मई से लगातार तीन दिन तक हुई इस व्यापक हिंसा में 60 से अधिक लोगों की जान गई और 20 हज़ार से भी ज़्यादा लोगों को अपना घर-बार छोड़कर शिविरों में रहने आना पड़ा.
दरअसल मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय अपने लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा चाहता है.
लेकिन पहाड़ों पर बसी मान्यता प्राप्त कुकी, नगा जनजातियाँ इसके विरोध में है.
हाल ही में मणिपुर हाई कोर्ट ने मैतेई ट्राइब यूनियन की एक याचिका पर सुनवाई करने के बाद राज्य सरकार से इस पर विचार करने को कहा था.
इसका विरोध करते हुए तीन मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ने चुराचांदपुर में ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ नाम से एक रैली निकाली और वहीं से हिंसा भड़क गई.
यहाँ के लोग बताते है कि प्रदेश में ऐसी व्यापक हिंसा पहले कभी नहीं हुई.
राजधानी इंफाल से लेकर पहाड़ी ज़िले चुराचांदपुर, बिष्णुपुर, टेंग्नौपाल और कांगपोकपी में हिंसा के निशान देखे जा सकते हैं.
यहाँ सड़क किनारे पड़े सैकड़ों जले हुए वाहन, जलकर राख हुए सैकड़ों मकान, जले हुए धार्मिक स्थल और सरकारी शिविरों में मुश्किलों के बीच रह रहे लोगों की जो तस्वीरें सामने आ रही है, उससे हिंसा की भयावहता समझी जा सकती है.
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का राज्य में यह लगातार दूसरा कार्यकाल है, लेकिन प्रदेश में हुई इस व्यापक हिंसा ने उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है.
कई लोग उन पर ये सवाल उठा रहे हैं कि उन्होंने हिंसा को नियंत्रित करने में देर की.
इंफाल रिव्यू ऑफ़ आर्ट एंड पॉलिटिक्स के संपादक प्रदीप फंजोबम बीरेन सिंह को प्रदेश का एक मंझा हुआ राजनेता मानते हैं.
लेकिन वे मणिपुर में हुई हिंसा को समय पर नियंत्रित नहीं करने को लेकर उन पर कई सवाल भी उठाते हैं.
पत्रकार प्रदीप फंजोबम कहते हैं, “वे एक अनुभवी राजनेता हैं और किसी भी संकट से निपटना जानते हैं. वे मणिपुर की ज़मीनी समस्याओं को न केवल बेहतर समझते हैं, बल्कि उनमें बातचीत करने की गजब की क्षमता है. लेकिन उनकी सरकार हाल में हुई हिंसा को समय पर नियंत्रित करने में नाकाम रही. उनके पास पूर्ण बहुमत है, लिहाजा यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि उन पर किसी तरह का कोई दवाब रहा होगा.”
इसी तरह के सवाल पत्रकार रूपचंद्र सिंह भी उठाते हैं.
वह कहते हैं, “बीरेन सिंह की सरकार को हिंसा को इतना फैलने से पहले ही रोकने की कोशिश करनी चाहिए थी. तीन दिन बाद जब केंद्र ने पूरी ताक़त झोंक दी, तो पहले दिन ही सब कुछ कंट्रोल कर लेना चाहिए था.”
3 मई को भड़की हिंसा से एक दिन पहले मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का एक बयान काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा.
मुख्यमंत्री ने 2 मई को कहा था कि मणिपुर म्यांमार से बड़े पैमाने पर अवैध आप्रवासन के ख़तरे का सामना कर रहा है.
उन्होंने कहा कि अवैध आप्रवासियों की जाँच के लिए गठित समिति ने दो हज़ार से अधिक म्यांमार के लोगों की पहचान की है, जो अपने देश में संघर्ष के कारण मणिपुर में आ गए हैं.
उन्होंने बिना उचित दस्तावेज़ों के राज्य में रह रहे म्यांमार के 410 लोगों को हिरासत में लेने की बात भी कही थी.
ऐसा कहा जा रहा है कि पहाड़ी ज़िलों में ख़ासकर संरक्षित वनांचल में सरकार के बेदखली अभियान और मुख्यमंत्री के इन बयानों को कुकी जनजाति ने ख़ुद को सताए जाने के तौर पर देखा.
दरअसल म्यामांर की चिन और मिज़ोरम की मिज़ो जनजातियों को कुकी का सजातीय माना जाता है. सामूहिक रूप से इन सभी पहाड़ी जनजातियाँ को ज़ो कहा जाता है.
सरकार समर्थक लोगों का कहना है कि म्यांमार से भागकर आए लोग भले ही कुकी जनजाति के रिश्तेदार हो सकते हैं, लेकिन उन्हें राज्य में बसने नहीं दिया जा सकता.
मणिपुर की पहाड़ियों में आरक्षित और संरक्षित वन क्षेत्रों में अतिक्रमण के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री के सख़्त रुख़ के पीछे यही प्रमुख कारण बताए जाते हैं.
इसके अलावा पहाड़ियों में कई एकड़ भूमि का उपयोग अफ़ीम की खेती के लिए किया जा रहा है.
लिहाजा सरकार वन क्षेत्रों पर अपनी कार्रवाई को ड्रग्स के ख़िलाफ़ एक बड़े युद्ध के हिस्से के रूप में देखती है. जबकि ‘ड्रग लॉर्ड्स’ जैसे व्यापक शब्द का उपयोग सभी कुकी लोगों के लिए करने से वे बेहद नाराज़ हैं.
राजनीति में कई लोग बीरेन सिंह को मणिपुर का हिमंत बिस्वा सरमा कहते है. दोनों ही अपने मुख्यमंत्री के सबसे ख़ास और संकटमोचक रहे और बाद में मतभेद इतना गहरा हुआ कि पार्टी छोड़ देनी पड़ी.
कई मौक़ों पर बीरेन सिंह कहते रहे हैं कि इबोबी सरकार को विकट परिस्थितियों से बाहर निकालने में उन्होंने मदद की, वरना इबोबी लगातार एक के बाद एक तीन कार्यकाल पूरा करने का इतिहास नहीं बना पाते.
लेकिन इबोबी ने अपने तीसरे कार्यकाल के समय बीरेन से दूरियाँ बना ली थी.
बीरेन सिंह को कांग्रेस में एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाने लगा, जो किसी भी समय इबोबी से उनकी सत्ता छीन सकते हैं.
उस दौर में इबोबी के कामकाज पर सवाल उठाने वाले कांग्रेस में वह इकलौते नेता थे.
बाद में दोनों के बीच मतभेद बढ़ने लगा, तो पार्टी ने बीरेन सिंह को शांत करने के लिए मणिपुर कांग्रेस का उपाध्यक्ष बना दिया.
लेकिन इबोबी सिंह के साथ उनका टकराव कम नहीं हुआ.
जब साल 2012 में इबोबी सिंह ने तीसरी बार प्रदेश में सरकार बनाई, तो बीरेन सिंह को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया.
इसका एक कारण बीरेन सिंह के बेटे अजय मैतेई का नाम 2011 के एक हत्याकांड से जुड़ने को भी माना जाता हैं.
2016 में पहले असम और बाद में अरुणाचल प्रदेश में सरकार बनाने के बाद बीजेपी की नजर मणिपुर पर थी.
पार्टी को मणिपुर में एक ऐसे नेता की तलाश थी, जो इबोबी सिंह को मात दे सके.
बीजेपी की नज़र में मणिपुर में बीरेन सिंह ही ऐसे नेता थे, जो इबोबी की सियासी चालों को बेहतर जानते थे.
अक्तूबर 2016 में बीजेपी बीरेन सिंह को अपनी पार्टी में शामिल करने में कामयाब हो गई.
बीरेन सिंह को बीजेपी में लाने का श्रेय हिमंत बिस्वा सरमा को दिया जाता है. क्योंकि दोनों के बीच कांग्रेस के ज़माने से अच्छी दोस्ती है.
एक पिता के तौर पर बीरेन सिंह अपने बेटे को लेकर काफ़ी परेशान रहे हैं.
उनके 38 वर्षीय बेटे अजय को साल 2017 में इंफाल की एक अदालत ने एक युवा छात्र की हत्या में शामिल होने के लिए दोषी ठहराया था.
उसी साल अपने बेटे को लेकर बीरेन सिंह ने एक ट्वीट कर कहा था, “मैंने अपने बेटे को सीबीआई को सौंप दिया था. वह पहले से ही जेल में है. मदद की कोई ज़रूरत नहीं है. धमकी का यह मामला गंभीर है और जाँच के लिए एनआईए को सौंपा जाएगा.”
फ़िलहाल मणिपुर के लोग इस हिंसा से उबरने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यहाँ बसे कुकी जनजाति और मैतई समुदाय के बीच इस टकराव से जो भरोसा टूटा है, उन ज़ख़्मों को भरने में सालों लग जाएँगे.
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